स्वामी विवेकानन्द के जीवन पर आधारित नरेन्द कोहली की पुस्तक प्रत्यावर्तन के अध्ययन का अवसर मिला। उसकी संक्षिप्तिका इस प्रकार है-
19 जुलाई, 1896 से लेकर 23 मार्च, 1897 तक अर्थात लगभग 8 महिने की स्वामी जी की यात्रा का एक अच्छा वृत्तांत ये पुस्तक प्रस्तुत करती है। इस पुस्तक में स्वामी जी एक उत्तम यायावर, श्रेष्ठ मार्गदर्शक एवं दार्शनिक, उच्च कोटि के शिष्य, भारत विकास के सबसे वरिष्ठ द्रष्टा, निर्धन व दलितों के उत्थान हेतु प्रयासरत आधुनिक भारत के सबसे पहले प्रणेता एवं एक निर्विकार भाव सम्पन्न गुरु के रुप में दिखाई देते हैं।
स्वामी जी की इंग्लैंड से फ्रांस की यात्रा से शुरू होकर इस पुस्तक का समापन कलकत्ता से दार्जिलिंग की यात्रा पर होता है। इंग्लैंड व यूरोप की यात्रा में मुख्य रुप से मिस हेनेरीटा मूलर (जो इस्पात या स्टील के स्वभाव की थीं, कदाचित स्वामी जी उन्हें उनके व्यवहार के कारण ही उन्हें क्षणे रुष्टा क्षणे तुष्टा कहा करते थे, जिन्होनें स्वामी जी को कई बार धन के मूल्य का आभास भी कराने का प्रयास किया किन्तु सभी प्रयास विफल रहीं और जिन्हें गुडविन द चिल्लियन वूमेन कहा करते थे) कप्तान सेवियर एवं उनकी पत्नी श्रीमती सेवियर के साथ स्वामी जी के जेनेवा जहाँ उन्होनें हाइड्रोजन भरे गुब्बारे में बैठकर जेनेवा को आकाश से देखने का अनुभव भी प्राप्त किया, शियों का दुर्ग(जहाँ स्वामी जी ने ध्यान भी लगाया था) घुमने के बाद स्वामी जी को प्रकृति की गोद मे जाने का मन करने लगा था क्योंकि जेनेवा आखिर मनुष्यों द्वारा ही बसाया गया एवं भौतिकता की चमक से भरा हुआ शहर था। अतएव आल्प्स का पर्वतारोहण करते हुए स्वामी जी जब एक बार फिसलते हैं तो महाभारत की पांडवों की अन्तिम यात्रा का वृत्तांत सुनाते हुए कहते हैं कि यदि कोई भौतिक शरीर से गिरे तो उसे उठाया जा सक्त है किन्तु यदि योग-स्खलित होने पर अर्थात अध्यात्मिक शरीर से गिरे तो उसकी कोई अन्य व्यक्ति सहायता नहीं कर सकता। यहां मेरा अनुभव कहता है कि अध्यात्मिक रुप से यदि हम गिरते हैं तो हमारे अध्यात्मिक गुरु ही हमें उठाते हैं। जय ठाकुर श्रीरामकृष्ण
आल्प्स सुन्दर तो है किन्तु उसमें हिमालय की तरह आध्यात्मिक भाव का संवहन स्वामी जी को नही दिखा। इसके बाद लिटिल सन्त बर्नार्ड का मठ देखने के दौरान स्वामी जी के मन में हिमालय में ऐसे ही मठ के निर्माण की योजना (जिसमें केवल शुद्ध सत्य की उपासना हो) चलने लगी जिसपर सेवियर दम्पति ने अपनी स्वीकृति भी दी। आगे मोन्टे रोजा हिमनद पर उन्होने पुष्प खिले देखे तो ऐसा लगा कि जैसे मृत्यु की गोद में बैठा जीवन मुस्करा रहा था। इसी समय एक पत्र में स्वामी कृपानन्द के बारे में दुखद सूचना श्रीमती बुल देती हैं। उनके पत्र का उत्तर स्वामी जी देते हैं और साथ-साथ सास-फी की यात्रा में मिस मूलर व स्वामी जी के संवाद में श्रीकृष्ण का चरित्र भी स्वामी जी बताते हैं- कृष्ण अनासक्त हैं, धर्मप्रिय हैं अतः धर्म की स्थापना वे प्रत्येक मूल्य पर करना चाहते हैं-युद्ध के मूल्य पर भी। और भारत को शिक्षा देते हैं कि भारत धर्म के मार्ग पर चले किन्तु आवश्यकता पड़ने पर अधर्म के विरुद्ध धर्म को शस्त्र भी धारण करना होगा।
इस बीच फ्रैंक मैक्समूलर का पत्र भी स्वामी जी को मिला जो अपने उपलब्ध ज्ञान से यूरोप में वेदांत पर लेख लिखते थे। पत्र का उत्तर देते हुए स्वामी जी, सेवियर दम्पति व मिस मूलर लुसर्न शहर पहुंचे। लुसर्न स्विटजरलैण्ड के मध्य में स्थित एक सुन्दर शहर है। वहाँ टूला प्रासाद (Tuileries Palace ) देखते हुए रीद्स नदी पर बने पुल के भित्तिचित्रों को देखकर स्वामी जी जहाँ एक ओर प्रसन्न थे वहीं मिस मुलर को वेदना हो रही थी। यात्रा की शुरुवात से ही मिस मूलर (जिन्हें गुडविन द चिल्लियन वूमेन कहते थे) का मन खराब ही रहा। ऐसा लगता है कि वे स्वामी जी के साथ अकेले यात्रा करना चाहती थीं। और ऐसा न होने पर लुसर्न तक आते आते उनका धैर्य समाप्त हो गया और वे लन्दन वापस चली गयीं। अब स्वामी जी और सेवियर दम्पति को यात्रा करनी थी। इस बीच स्वामी जी ने श्री रामदयाल बाबू को लिखे पत्र को एक पत्र लिखा था जिसे आपको यदि अवसर मिले तो अवश्य पढ़ना चाहिये।
अब लुसर्न से जर्मनी की यात्रा शुरू हुई। 8 सितम्बर 1896 को स्वामी जी व सेवियर दम्पत्ति कील पहुंचे। वहाँ 9 सितम्बर को प्रोफेसर डायसन के एक कार्यक्रम में स्वामी जी को शामिल होना था। डायसन के घर पहुँचकर स्वामी जी ने उनके साथ विभिन्न विषयों विशेष रुप से संस्कृत एवं वेदांत पर विमर्श किया। और अन्ततः विमर्श के बाद प्रोफेसर डायसन को कहना पड़ा कि भविष्य मे आध्यात्मिकता के मूल तक पहुचने के लिए एक बड़ा आन्दोलन शुरू होगा और उसका नेतृत्व भारत करेगा और वह पृथ्वी पर सर्वोच्च एवं महानतम आध्यात्मिक शक्ति के रुप में स्वीकृत होगा।
स्वामी जी डायसन को समझाते हुए कहते हैं कि मन:संयम एवं एकाग्रता एक ही सिक्के के दो पक्ष हैं। संयम से मन एकाग्र होता है और स्मरण शक्ति भी पुष्ट होती है।
डायसन के पूछने पर कि वे कैसे सन्यासी हैं? तो स्वामी जी ने कहा था- सन्यासी की प्रतिज्ञा पूरी करता हूँ-कामिनी और कांचन का त्याग। डायसन के लिए कामिनी का त्याग तो असम्भव था हाँ कांचन का त्याग किया जा सकता था। अतः वे चुप हो गये। इसके बाद पुनः लंदन जाने का समय आ गया। और स्वामी जी अपनी टोली के साथ 17 को प्रातः लिवरपूल स्ट्रीट स्टेशन पर पहुँचे। यहाँ कोहली जी सही अनुमान लगाते हैं की डायसन स्वामी जी की आध्यात्मिक ऊंचाई का अनुमान नही लगा पाये। लंदन मे सेवियर दम्पत्ति के घर स्वामी जी रुके। इसके बाद न्यूयार्क में स्वामी जी के वेदांत प्रचार की संस्था के बारे मे श्रीमती बुल और जोसेफ़ाइन की चर्चा को कोहली जी प्रस्तुत करते हैं और मिस वाल्दो द्वारा लिखे पत्र से ये बताने का प्रयास करते हैं कि जिस समिति को चलाने के लिए नियम की आवश्यकता पड़े वो उन नियमों पर कभी नही चलती है। अतः आध्यात्मिक प्रचार के लिए ऐसे लोगों की समिति होनी चाहिये जो स्वयं में अनुशासित हों और आपस में प्रेम व अनुकूलता से एक-दूसरे के साथ रहकर कार्य कर सकें। यहाँ आपको यह जानना आवश्यक है कि ऐसा संगठन माननीय श्री एकनाथ रानाडे जी ने कन्याकुमारी मे स्थापित किया है जिसका नाम है विवेकानन्द केन्द्र। आज यह संगठन पूरे भारत में स्वामी जी के विचार का संचार व मानव सेवा के साथ विभिन्न प्रकल्पों के माध्यम से कार्य कर रहा है। इसके बारे मे फ़िर कभी लिखूंगा।
7 अक्टूबर, 1896 को स्वामी जी पुनः लंदन पहुँच चुके हैं। मिस मूलर और स्वामी जी के संवाद में एक महत्वपूर्ण बात स्वामी जी कहते हैं कि कोई भी पत्नी अपने पति को किसी सन्यासी से मिलना-जुलना पसन्द नही करती। क्योंकि सन्यास उसको अपनी गृहस्थी के विरुद्ध खड़ा दिखाई देता है। और एक बात कि सन्यासी का जब मन हो वह किसी को भी अपनी ओर आकर्षित कर लोक कल्याण करा सके ऐसा होना चाहिये।
स्वामी जी नित नवीन कार्य सीखने के लिए तत्पर रहते थे फ़िर चाहे फ्रेंच भाषा के साथ अन्य भाषा का अध्ययन हो या गोल्फ खेलने की कला या चित्रकारी या साइकिल चलाना सीखना। कदाचित इसी कारण स्वामी अभेदानंद उनसे पूछते हैं कि तुमसे कुछ छूटा भी है? स्वामी जी ये भी सीख दे रहे हैं कि सन्यासी को अपने ग्रंथों का स्वध्याय कभी भी बन्द नही करना चाहिये। यद्यपि ये बात सबपर लागू होती है। क्योंकि अपनी यूरोप यात्रा के दौरान भी वाए ऋग्वेद संहिता का स्वध्याय कर रहे थे और अभेदानंद से अन्य वेद, ब्राह्मण व संहिता लाने के लिए कहा था।
फ़िर कोहली जी गुडविन व स्वामी जी के संवाद से एक गुरु व शिष्य के मध्य सम्बंध को दर्शाते हैं। आगे मेरी को लिखे पत्र में स्वामी जी की कुछ महत्वपूर्ण बातें लेखक ने प्रस्तुत की हैं जैसे आत्म समर्पण व स्वार्थनिग्रह क सबसे सरल उपाय है प्रेम और इसका विपरीत है द्वेष। बाह्य जीवन सदा ही शुभ-अशुभ का मिश्रण रहेगा। स्वामी जी 16 दिसंबर को इटली जाने को तैयार हैं क्योंकि वहाँ से उनका प्रत्यावर्तन भारत के लिए होना है और पत्र द्वारा इसकी पूर्व सूचना अपने प्रिय लाला जी को देते हैं। भारत आने का उनका निर्णय कदाचित स्वामी अभेदानंद (लंदन) और शारदानंद (अमरीका) की अपूर्व सफलता के करण ही था। भारत आने के पूर्व निवेदिता की जिज्ञासा को स्वामी जी शान्त करते हैं जिसमें उनका भारत प्रेम उमड़कर सामने आता है। फ़िर
फ़िर गुडविन और उनकी माँ का संवाद एक पुत्र (जो सन्यासी होने का मन बना चुका है) व एक निष्कपट माँ का मार्मिक क्षण प्रस्तुत करता है।........शेष अगले भाग मे कल फ़िर मिलियेगा🙂।।💐💐💐
बहुत सुंदर
ReplyDeleteधन्यवाद आपका। 🙏💐
DeleteAtyant rochak
ReplyDeleteआभार आपका 🙏💐
Deleteउम्दा चित्रण
ReplyDeleteधन्यवाद भैया🙏💐
Deleteउम्दा चित्रण
ReplyDeleteउम्दा चित्रण
ReplyDeleteउत्सुकता से परिपूर्ण 🙏👏
ReplyDeleteधन्यवाद🙏💐
Deleteप्रेरणा दायक तथ्य भईया
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना 🙏💐🙏