आज फ़िर घर की स्मृति आ रही है। स्वजनों का प्रेम भी साथ है फ़िर भी आज घर की स्मृति आ रही है। एकाकीपन में रहने पर प्रायः ऐसी स्थिति से आप भी गुजरे होंगे। कुछ विशेष तो नही किन्तु जो भी है वह कुल मिलाकर यही कह सकते हैं कि घर भी तो हमें एक अस्तित्व का आभास कराता है। घर भी पाठशाला है जहाँ हम संस्कार सीखते हैं और जीवन पर्यन्त उनके द्वारा चलायमान होते हैं।
घर में किसकी स्मृति आ रही- किसी स्वजन, वस्तु, भवन, उद्यान या खेत-खलिहान? किसकी? समझ में नहीं आ रहा और अन्तर्मन इसका उत्तर देने से मना कर रहा है। अन्तर्मन केवल इतना ही कह पा रहा कि घर की स्मृति आ रही है और मस्तिष्क उसके अनुरुप चित्रण करने में व्यस्त है। मुझे ये दोनों सुन नहीं रहे बस अपना-अपना राग अलापते जा रहे हैं। जहाँ एक ओर मन बच्चों की स्मृति में खोया है वहीं मस्तिष्क उसको छायाचित्र के माध्यम से जीवन्त बनाने को तत्पर है। जहाँ मन माँ की स्मृति में खो गया है वहीं मस्तिष्क माँ के प्रेम की सुखद अनुभूति का चित्रांकन करने में व्यस्त है। मन जब पिता जी की स्मृति में है तब मस्तिष्क उनके द्वारा किये गये त्याग का भावांकन करने में लगा है। और इसी प्रकार कभी भैया, भाभी, दादी, अनुज ,भवन खेत-खलिहान आदि सबका क्रम चल रहा है।
आपको जानकर आश्चर्य होगा कि जब स्मृति आती है तो कभी भी कुछ भी नकारात्मक नहीं लाती। स्मृतियों में कभी भी किसी के कटुवचन, दुर्व्यवहार का स्थान न होकर उसके साथ के सुख के पल व अनुभूतियों का ही स्थान सबसे पहले आता है। कभी-कभी ऐसा लगता है कि स्मृति तभी आती है जब हम पूर्णतः निस्वार्थ होते हैं। कदाचित यही करण होता है कि जब किसी की स्मृति आती है तो हमारे मन और मस्तिष्क सुखद अनुभूतियों, अच्छे व्यवहार व मृदु वचनों आदि में खो जाते हैं लेकिन हम तो निर्विकल्प बने रहते हैं, जब हम निस्वार्थ होते हैं और मन स्मृतियों को ला रहा होता है तब कभी कभी स्वार्थ के आने पर मन नकारात्मक स्मृतियां भी लाना प्रारम्भ कर देता है। किन्तु प्राथमिक रुप से स्मृति हमेशा सकारात्मक ही होती है और स्वयं के निरन्तर हो रहे विकास की सूचना देती है।
कभी भी जब स्मृति आये तो अनुभव करने का प्रयास करें कि आप तो कुछ नहीं कर रहे, चित्रांकन व भावांकन मस्तिष्क कर रहा और मन एक-एक करके लोग व वस्तुओं की सूची ला रहा है। इन सबमें हम कहाँ हैं? क्या ये सब हम कर रहे? स्मृतियां हम ला रहे? तो मन क्या कर रहा? चित्रांकन हम कर रहे? तो मस्तिष्क क्या कर रहा? और यदि ये दोनों कार्य कर रहे तो हम क्या कर रहे? हम बस इन्हें देख रहे हैं। मन प्रसन्न भी हो रहा और दुखी भी किन्तु हम वैसे ही बने हुए हैं निर्विकल्प।
हम बस द्रष्टा हैं और साक्षी भाव से इन दोनों का सूक्ष्म अवलोकन कर रहे हैं। यदि यही साक्षी भाव हमारे निरन्तर साथ रहे तो आध्यात्मिक उन्नति का द्वार खुलता है।
स्मृति के इस अध्याय से आदिगुरु श्री शंकराचार्य द्वारा स्वयं के परिचय का प्रथम सूत्र सहसा सामने आ जाता है-
मनोबुद्ध्यहन्कार चित्तानि नाहं........
चिदानंद रुप: शिवोहम शिवोहम।।
मदन मोहन,
कृष्ण चतुर्दशी, आश्विन मास, संवत्-२०७७ (2077)
तद्नुसार १६-०९-२०२०
Behad satik vishleshan
ReplyDeleteधन्यवाद🙏💐
Deleteस्मृति ..... सुन्दर चित्रण
ReplyDeleteधन्यवाद, 🙏💐
Deleteशिवोहम् शिवोहम्
ReplyDelete🙏💐🙏
शिवोहम शिवोहम।।
ReplyDeleteअति उत्तम विश्लेषण🙏🙏
ReplyDeleteधन्यवाद।🙏💐
Deleteभाग-दौड़ में ठहर कर स्व- स्थिति का अवलोकन करना बड़ी बात और उसे शब्द में पिरो कर साझा करना प्रशंसनीय🙏
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