अब आगे....
फ़िर गुडविन और उनकी माँ का संवाद एक पुत्र (जो सन्यासी होने का मन बना चुका है) व एक निष्कपट माँ का मार्मिक क्षण प्रस्तुत करता है। गुडविन माँ को ये नही बता सकते थे कि वो सन्यासी बनने जा रहे हैं। किन्तु माँ का हृदय तो पुत्र की स्थिति को भांप लेता है न। माँ को यह लग गया कि गुडविन एक पादरी बनने जा रहे हैं। उन्हें इस बात की खुशी थी कि उनका लड़का जुआरी से पादरी बनने जा रहा था। गुडविन के हृदय में माँ के प्रति प्रेम व उन्हें छोड़ने के निर्णय के मध्य जो झंझावात चलता है उससे हम एक सन्यासी के त्याग को समझ सकते हैं। खैर स्वामी जी की यात्रा शुरू होती है और वाए मिलान, लियोनार्डो द विन्सी, पिसा की झुकी मीनार, फ्लोरेन्स नगर(जो आर्नो नदी के तट पर बसा है) और बीच में जार्ज हेल व श्रीमती बेला हेल से सहसा मिलना (जब शिकागो में स्वामी जी भूख के कारण अचेत होकर गिर रहे थे तो श्रीमती हेल ने उन्हे भोजन दिया था।) आदि घटनाएँ घटित हो रही हैं किन्तु स्वामी जी निर्लिप्त भाव से एक नायक की तरह अपनी भूमिका निभाते जा रहे हैं। सत्य भी है न कि जिसके भाग्य में जितना काम होता है वह उतना ही करेगा जैसे अपने संवाद बोलकर कोई अभिनेता नेपथ्य में चला जाता है। रोम पहुँचकर स्वामी जी जब उस विशाल साम्राज्य के खँडहर देखकर उसकी चर्चा करते हैं तो श्रोताओं को लगता है कि रोम पुन: जीवित हो उठा है। (एक शिक्षक या मार्गदर्शक को ऐसा ही होना चाहिये)। इसी बीच एक और शिरोधार्य वाणी स्वामी जी के मुख से निकलती है- हमारा बाहरी कर्मकाण्ड तभी तक महत्वपूर्ण है जब तक वह हमारी आन्तरिक पवित्रता को प्रज्वलित कर रहा है। यदि जीवन से उसका सम्बंध टूटा तो निर्दयता से उसे छोड़ देना चाहिये।
अन्ततः 30 दिसंबर, 1896 को जलपोत प्रिंस रेजेंट लियोपोल्ड पर स्वामी जी, गुडविन व उनके साथ सेवियर दम्पति भारत के लिए प्रस्थान कर गये। कभी-कभी समय और परिस्थितियाँ हमें अपने आचार, विचार व व्यवहार को बदलने के लिए प्रेरित करती हैं। ऐसा हम सबके साथ होता है। स्वामी जी के साथ भी हुआ था जब उन्हें लगा कि उन्हें अमेरिकी वेशभूषा धारण करनी चाहिये किन्तु उसी समय ऐसा लगता है जैसे ठाकुर एक भद्र पुरुष के रुप मे उनका मार्गदर्शन करने आये और स्वामी जी ने वह विचार त्यागकर अपना गेरुवा वस्त्र ही धारण करना उचित समझा। ब्राह्मण शब्द को परिभाषित हुए स्वामी जी ने गुणवान ब्राह्मण को ही मानव जाति का उत्कर्ष माना है न कि ब्राह्मण वंश को। साथ ही 4 वर्ष भोगवादी पश्चिम की यात्रा के बाद भारत को तीर्थ की संज्ञा देते हैं। जिसने अमरीका व यूरोप में भी अपनत्व देखा हो उसे यह सोचना स्वाभाविक है कि वह क्या है- अमेरीकी, यूरोपियन या एशियाई? स्वामी जी के साथ भी कुछ ऐसा ही हो रहा था। जब स्वामी जी का जलपोत पोर्ट सईद पहुचने को होता है उस समय कदाचित तंद्रा में उन्हें एक अति वृद्ध व्यक्ति कहीं शून्य से प्रकट होकर उनके सामने खड़ा हो गया और उन्हें इसाई सम्प्रदाय के साथ तुर्की के क्रेटे द्वीप का इतिहास भी बताया। आपको अवसर मिले तो वह अवश्य पढियेगा। और फ़िर अदन में वो पान वाला भारतीय जो स्वामी को हुक्का पीने के लिए देता है। अदन में कुछ पल बिताने के बाद जब जलपोत कोलम्बो जा रहा था तो दो पादरी सनातन धर्म को नीचा दिखाने के लिए स्वामी जी के समक्ष आकर खड़े हुए और अन्ततः स्वामी जी से उन्हे पराजित होना पड़ा। ये घटना तो हम सबने सुनी है।
15 जनवरी, 1897 को जलपोत के साथ स्वामी जी कोलम्बो पहुंचे तो अपने दृढ़ निश्चय के अनुरुप निरन्जनानंद समुद्र में ही वाष्पचालित नौका से स्वामी जी का स्वागत करने आ पहुंचे। कोलम्बो में हजारों की संख्या में हिन्दू जनमानस स्वामी जी के स्वागत में एकत्रित था। इस सम्मान से अभिभूत स्वामी जी ने कहा कि यही हिन्दू परम्परा है कि सम्राटों के किरीट ऋषियों के चरण प्र गिरते हैं। इसके साथ ही उन्होने अपने भाषण में पश्चिम के जीवन के मूल में राजनीति व भोग एवं भारतीय जीवन के मूल में धर्म व त्याग को स्पष्ट शब्दों मे परिभाषित किया। और जब वे विख्यात जर्मन दार्शनिक शापेन हावर की उक्ति कि उपनिषदों के समान संसार में कोई अन्य हितकारी व उन्नायक ग्रंथ नही है, तब भारतीयों की आंखं खुलती है। स्वामी जी जब एक निर्धन हिन्दू महिला, जिसका पति सन्यासी बनने चला गया है, से बात करते हैं तो एक महत्वपूर्ण बात निकल कर सामने आती है कि धर्म का मर्म पुस्तकें पढ़ने में नही अपितु उसके प्रकटीकरण व उसकी अनुभूति मे है। फ़िर राजाराम और पुजारी के वार्तालाप से कोहली जी ने धर्म व देशचार का अन्तर स्वामी जी की बातों से स्पष्ट किया है। एक बात तो स्पष्ट है कि भारत में 33 कोटि देवता माने माने गये हैं किन्तु किसी के अनुयायियों ने कभी किसी से अपनी श्रेष्ठता प्रमाणित करने के लिए संघर्ष नही किया है। इसके पीछे स्वामी जी एक ही तर्क देते थे-एकं सद्विप्रा बहुधा वदंति। इस गुण का अन्य सम्प्रदायों मे आभाव दिखता है। शिव महिम्न स्त्रोत द्वारा भी ईश्वर तत्व की एकता को स्वामी जी स्पष्ट करते हैं। अपने भाषण में वे बताते हैं कि विभिन्नता ही जीवन का मूल है।
प्रत्येक धर्मानुयाई को अपने-अपने धर्म के अनुसार ईश्वर प्राप्ति का प्रयास करना चाहिये न कि उसे दूसरों को अपने धर्म को मनवाने का प्रयास करना चाहिये। इन सबके बीच स्वामी जी ने मद्रास जाने का मन बनाया तो आगे कैंडी पहुंचे। कैंडी सीलोन का एक पर्वतीय स्वास्थ्य केन्द्र है। यह भगवान बुद्ध के दन्त मन्दिर के लिए भी प्रसिद्ध है। वहाँ से स्वामी जी अनुराधापुरम जहाँ 2000 वर्ष पूर्व बोधगया से ले जाकर एक वट वृक्ष लगाया गया था, पहुंचे। जाफना निवासी हिन्दुओं से मिलने के बाद वेदान्त विषय पर एक सुन्दर और स्पष्ट व्याख्यान देने के बाद मद्रास की ओर स्वामी जी की टोली बढ़ी। रामनाड के राजा सेतुपति जिसने स्वामी जी पर अविश्वास किया था, उनके स्वागत के लिए आया और उनके चरणों में सिर रख दिया। स्वामी जी ने उन्हें प्रेम से उठाया। फ़िर रामेश्वरम के दर्शन के बाद एक वक्तव्य में उनके मुख से निकल पड़े- यदि आध्यात्मिक आधार नही होगा तो पश्चिम की भौतिकता अगले 50 वर्षों में धराशायी हो जायेगी। और ये बताने की आवश्यकता नहीं कि अगले 50 वर्षों मे दो विश्व युद्ध हुए।
लोगों से मिलते-जुलते एवं व्याख्यान देते-देते स्वामी जी का शरीर थक जाता था किन्तु लोगों का उत्साह देख वे मना नही कर पाते थे। मदुरै पहुचने के बाद वहाँ माता मीनाक्षी मन्दिर दर्शन हेतु गये। दर्शन के बाद तिरुचिरापल्ली, तंजावुर और कुंभकोणम से होकर ताम्बरम और फ़िर एग्मोर स्टेशन पर भी स्वामी जी के स्वागत हेतु सभी वर्गों से हजारों लोग आये थे। खेतड़ी के महाराज ने भी स्वामी जी को अपना अभिनंदन पत्र भेज दिया था जो मद्रास में उन्हे मिल गया। फ़िर स्वामी जी ने सुवर्ण नेवले की कथा न्यायमूर्ति सुब्रह्मण्यम अय्यर की धर्मपत्नी श्रीमती शारदा अय्यर को सुनाई और उन्हें ईश्वर को पाने का सबसे सरल मार्ग गरीबों वंचितों की सेवा बताया। अपने एक सम्भाषण में स्वामी जी ने राष्ट्र को जीवित रहने का आधार आध्यात्मिकता बताया। मद्रास के विक्टोरिया हाल में मेरा अभियान नामक भाषण में स्वामी जी ने इसाई मिशनरियों, ब्रह्म समाजियों जैसे-प्रतापचन्द्र मजूमदार एवं वामपंथियों (जो हमेशा भारतीय संस्कृति को नीचा दिखाने का प्रयास करते थे) का काला चिट्ठा खोलकर रख दिया। इसके साथ ही एक प्रखर राष्ट्र भक्त के रुप में स्वामी जी का भारत निर्माण का कार्यक्रम बहुत ही सुगठित था। मेरा मानना है कि यदि स्वामी जी के विचारों के आधार पर परतन्त्र भारत आगे बढ़कर स्वतंत्र हुआ होता तो कदाचित भारत का विभाजन नही होता।
राष्ट्र निर्माण का कार्य केवल ऋषि का है न कि राजा या सम्राट का। क्योंकि ऋषि ही मत, पंथ, धर्म, क्षेत्र और भाषा आदि से भी उपर उठकर धरती व उसकी संस्कृति से प्रेम करना सिखाता है। इसके बाद विक्टोरिया हाल के अपने दूसरे भाषण मे स्वामी जी ने शाश्वत सत्य और आनुषंगिक सत्य की चर्चा की जिसके बारे में क्रमशः वेद अर्थात श्रुति और पुराण अर्थात स्मृति में स्पष्ट वर्णन मिलता है।
फ़िर वे भारत के प्राचीन, मध्य और आधुनिक इतिहास पर बहुत सुन्दर ढंग से प्रकाश डालते हैं जिसमे श्रीराम, श्रीकृष्ण, महात्मा बुद्ध, आदि गुरु शंकराचार्य, श्री रामानुजाचार्य और अब श्रीरामकृष्ण परमहंस तक के उद्भव व उनके योगदान के बारे मे स्पष्ट चर्चा करते हैं।
इन सभी घटनाओं के साथ प्रोफेसर सुन्दरराम स्वामी जी का अवलोकन कर रहे थे और उनसे रहा न गया तो पूछ लिया कि आप इतना काम कैसे करते हैं?थकते नही हैं? स्वामी जी का उत्तर अत्यन्त सारगर्भित था-भारत में आध्यात्मिक चर्चा से कोई नही थकता है।। पूर्व जन्मों के प्रश्न पर स्वामी जी ने कहा कि विशिष्ट सर्वमान्य साधसाधनाओं के अभ्यास से हम अपने विभिन्न जन्मों मे अप्ने व्यक्तित्व की निरन्तरता का बोध प्राप्त कर सकते हैं। 13 फरवरी, 1897 को पचप्पा हाल में स्वामी जी का भाषण भी कोहली जी ने प्रस्तुत किया है। आपको यदि अवसर मिले तो 13 फरवरी 1897 का स्वामी जी का भाषण अवश्य पढियेगा जिसमें वे भारत के वर्तमान और भविष्य अर्थात छात्रों में तीव्र रक्त का संचार कर रहे है। वे कहते हैं कि प्रत्येक छात्र को अनुभव करना होगा कि वह आत्मा है तो वह श्रेष्ठ छात्र होगा और उसकी इस सत्य मे निष्ठा बनी रहने पर उसमें शक्ति आयेगी और भय विलुप्त हो जायेगा। मुक्ति आयेगी व बन्धन नष्ट हो जायेंगे। क्योंकि विकास की पहली शर्त मुक्ति है।
कभी-कभी हम सबके साथ भी ऐसा होता है कि हम किसी के कहे हुए वाक्य का अर्थ उसमे प्रयुक्त शब्द से लगाते हैं जिससे अर्थ का अनर्थ भी हो जाता है। ऐसा ही स्वामी जी के साथ भी हुआ था जब श्री पेरूमल से उनके बगल मे बैठे व्यक्ति ने कहा कि आपके स्वामी जी तो व्यक्ति को गीता पढ़ने से अच्छा फुटबाल खेलने के लिए कहते हैं, तो क्या फुटबाल खेलने से खिलाडी मोक्ष प्राप्त करेंगे और गीता व अन्य धर्मशास्त्र पढ़ने से इस संसार में भटकते रहेंगे?😂😂😂 तो पेरूमल जी उसे समझाते हैं कि स्वामी जी फुटबाल खेलने को कहते हैं जिससे भारत का शरीर स्वस्थ हो और गीता पढ़ने को इसलिये आवश्यक बताते हैं जिससे भारत के सुदृढ़ चरित्र का निर्माण हो सके। इसी प्रकार उनका 16 फरवरी का भाषण भारत का भविष्य भी आपके हृदय को झंकृत कर देगा। अवसर निकालकर अवश्य पढियेगा। शिक्षा के बारे में स्वामी जी ने यहां कहा था कि भारत को अपनी आध्यात्मिक व सांसारिक शिक्षा पर पूर्ण नियन्त्रण होना चाहिये। दुर्भाग्यवश ऐसा नही है। आज केवल हम सांसारिक शिक्षा ही ग्रहण कर रहे हैं।
व्यस्ततम जीवन में भी स्वामी जी अपने अनुयाइयों (चाहे वे पश्चिम के हों या पूर्व के हों) के पत्र का उत्तर देते जा रहे थे। स्वास्थ्य थोड़ा शिथिल लग रहा था फ़िर भी भारत को जगाने के लिए कार्यरत थे।
15 फरवरी, 1897 को स्वामी जी अपने साथियों के साथ कलकत्ता प्रस्थान करते समय स्वामी जी को भेंट में डाब (कच्चा नारियल) इतना मिला कि उनका जलयान भर गया। स्वामी जी के प्रति भारत की श्रद्धा की वो एक झलक मात्र थी।
चारों ओर से स्वामी जी के स्वागत समारोह के समाचार आ रहे थे किन्तु कलकत्ता अब तक मौन था। लेकिन सत्व की आभा ऐसी होती है कि रज व तम उसके पैरों में गिरते हैं। फलतः कलकत्ता भी स्वामी जी की आभा से दैदीप्यमान हो उठा था। और होता भी क्यों न। वह भूमि जिसने भारत के गौरव को पुष्पित, पोषित और पल्लवित किया था वह भला शान्त कैसे रह सकती थी। माँ (काली माँ) अपने पुत्र के स्वागत की तैयारी मे थी और ठाकुर अपने नरेन के भव्य आयोजन के लिए कलकत्ता की वायु बदल चुके थे। और स्वामी जी के आगमन की तैयारी की जा चुकी थी। प्रताप मजूमदार , वामपंथी, इसाई पादरी एवं अन्य भारतीय संस्कृति के आलोचक सब शान्त हो चुके थे। कोहली जी ने प्रताप मजूमदार व उनकी पत्नी के वार्तालाप से उस समय वामपंथियों की दशा का सुन्दर चित्रण किया है। स्वामी जी ने चरित्र निर्माण में सबसे आवश्यक तत्व बताया कि प्रत्येक हिन्दू के घर मे अपने धर्मग्रंथों की एक पुस्तकालय होनी चाहिये जिसका अभ्यास अपनी पीढियों को कराते रहना होगा। फ़िर गोरक्षा समिति पर उनके स्पष्ट विचार एक सन्यासी के साथ साथ हम सबको भी स्पष्टवादी होने को प्रेरित करते हैं।
7 मार्च, 1897 को ठाकुर श्रीरामकृष्ण की जयंती दक्षिणेश्वर काली मन्दिर में मनाई गई और स्वामी जी ने अपने सभी साथियों को पंचवटी व बिल्व वृक्ष सहित सभी महत्वपूर्ण स्थल के दर्शन कराया और माँ भुवनेश्वरी देवी का जूठन खाकर एक सर्वश्रेष्ठ पुत्र का चरित्र भी प्रस्तुत किया। फ़िर कुछ सन्यासियों स्वामी विरजानंद, निर्भयानन्द, प्रकाशानंद और नित्यानंद को दीक्षित किया। निरन्तर गिरते स्वास्थ्य की सुश्रुषा के लिए दार्जीलिंग की यात्रा पर गये। वहाँ से निरोग होकर कलकत्ता आने पर खेतड़ी के राजा अजीतसिंह से मिले। फ़िर स्वास्थ्य खराब होने के कारण श्री माँ शारदा से आशीर्वाद प्राप्त कर पुनः 23 मार्च को दार्जिलिंग की यात्रा पर निकल पड़े।
ऐसे ऋषि के जगाने पर भी भारत सोता रहे ये सम्भव न था। जिसका परिणाम रहा कि अगले 50 वर्षों में भारत स्वतंत्र हुआ। और अब एक बार फ़िर आध्यात्मिकता की बाढ़ शुरू हो रही है, जिसके प्रवाह में सभी बह जायेंगे। भारत का गौरव पुनः स्थापित होगा वो भी संवहनीय विकास के साथ। इन्हीं शुभकामनाओं के साथ हम सब सदा विवेकानन्दमयं के मार्ग पर आगे बढें।।
नोट- इसमें वर्णित लगभग जो भी तथ्य हैं उनका सन्दर्भ श्री कोहली जी की पुस्तक से उद्धृत है।
अष्टमी तिथि शुक्ल पक्ष, आश्विन मास
संवत् 2077
तद्नुसार- 24 सितम्बर, 2020
मदन मोहन
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पुस्तक संक्षिप्तिका