दोनों एक ही समय की छवियां हैं किन्तु एक मूलभूत अन्तर है। एक में उदयाचल चन्द्रदेव अपनी आभा बिखेर रहे हैं और दूसरे में अस्ताचल सूर्यदेव अपनी रक्तिमासक्त किरणों को समेटने में लगे हैं।
इन्हें देखकर कुछ याद आया?
काश हम भी इनसे कुछ सीख पाते। यहां हम का तात्पर्य केवल हमारी वर्तमान पीढ़ी से है। अतीत व भविष्य की पीढियों की बात फ़िर कभी।
कितना मनोरम व सुखद लगता है न कि समय पुरा हुआ कि सूर्यदेव बिना किसी इर्ष्या द्वेष के स्वयं को समेटने लगते हैं। ठीक उसी प्रकार चन्द्रदेव भी अपनी शीतल आभा बिखरने को तैयार रहते हैं।
किन्तु एक हम सब हैं कि एक बार हमारी पारी आ जाय फ़िर तो सूर्य व चन्द्र दोनों का हिस्सा खा जायें। फ़िर तो बस हम ही चमकना चाहते हैं। दूसरा कोई अपनी आभा चमकाने को तत्पर हो तो हम उसके पंख कुतरने या उसकी आभा को कुत्सित करने के जघन्य अपराध करने में लग जाते है।
सूर्य व चन्द्र प्रकृति की साम्यता व निरन्तरता को दिखाते हैं। लेकिन हम कदाचित ही वह देखना चाहें। यही साम्यता हमारे ऋषि-मुनियों ने अवलोकन कर उन्हें मानव जीवन को व्यवस्थित करने के लिए वेदों, उपनिषदों व पुराणों आदि में क्रमबद्ध रुप से संकलित किया था किन्तु आज हम उनसे भी विमुख हो रहे हैं।
क्या हम प्रकृति की यह सुरम्यता देख सकेंगे?
क्या हम आपस में सामन्जस्य बैठा पायेंगे?
क्या ऋषि-मुनियों के शोध से हमारा जीवन पथ आलोकित हो पायेगा?
क्या सूर्य-चन्द्र हमें अपना पाठ पढ़ा सकेंगे?
उत्तर है- हाँ, अवश्य ये सब होगा। लेकिन कब? इसका निर्धारण प्रकृति करेगी।
मदन मोहन।
भाद्रपद शुक्ल द्वादशी, संवत २०७७,
तद्नुसार ३० अगस्त, २०२०