प्रथम विश्व युद्ध के पूर्व यूरोप, भाग-1, जर्मनी का एकीकरण

 




छवि को शायद आप पहचानते हों- ये हैं जर्मनी के कौटिल्य। इनका नाम ओट्टो वॉन बिस्मार्क था। जर्मनी के एकीकरण में इन्हें विश्व इतिहास हमेशा याद रखेगा। आइये कुछ जानते हैं इनके बारे में:-

वर्ष 1871 में राएखस्टैग (जर्मन संसद) का चुनाव बहुत ही महत्वपूर्ण माना जाता है। ऐसा इसलिये भी है क्योंकि इस चुनाव के बाद बिस्मार्क के साथ वहाँ के उदारवादी दल भी खड़े हुए थे। बताते चलें की उदारवादी दल की पकड़ जर्मनी की अधिकांश जनता तक थी। लेकिन जहाँ एक ओर उदारवादी एक उत्तरदायी सरकार की स्थापना की मांग करते थे, वहीं बिस्मार्क एकीकरण पर सबसे अधिक बल देकर कार्य कर रहे थे। लगभग 7 वर्ष तक उदारवादी व बिस्मार्क साथ-साथ चले किन्तु 1878 तक आते-आते राष्ट्रीय उदारवादी दल टूटने की स्थिति मे आ गया। उदारवादी दल के टूटने से अब बिस्मार्क को भय भी नहीं लगता था क्योंकि गत 7 वर्षों मे बिस्मार्क ने स्वयं को दृढ़ता से स्थापित किया था। ध्यातव्य है कि यदि वे सभी दलों को तुष्ट करने की नीति(तुष्टीकरण) पर चले होते तो शायद जर्मनी कभी भी एक न हो पाता जैसा कि भारत में कश्मीर को लेकर हुआ(यद्यपि वह गलती अब अधूरी ही सही किन्तु सुधारी जा चुकी है)। बिस्मार्क ने विभिन्न दलों के अलग-अलग हितों को कभी एकता स्थापित कर या कभी ध्यान न देकर जर्मनी का एकीकरण किया। एक महाशक्ति के रुप मे जर्मनी का उदय बिस्मार्क के जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि थी। इससे न केवल यूरोप मे एक नया शक्ति-संतुलन स्थापित हुआ अपितु उस संतुलन में जर्मनी का स्थान भी निर्धारित हो गया। 

ध्यान रहे कि बिस्मार्क का विदेश नीति का सिद्धान्त बहुत स्पष्ट था- पाँच शक्तियों के विश्व मे हमेशा तीन में से एक रहने का प्रयास करो। यही मूल सिद्धान्त बिस्मार्क द्वारा महान जर्मनी की स्थापना में सहायक हुआ। 

यदि हम सीखना चाहें तो इतिहास सीख देता है। 

मदन मोहन।

छवि- https://www.google.com/amp/s/hekint.org/2019/05/06/otto-von-bismarck-the-iron-chancellor/amp/

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